श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की वात्सल्यमय शुभकामनाएं


भारतीय जीवन दर्शन का परम एवं चरम सुख है, कृष्णमय होने का प्रयास करना। भारतीय आध्यात्म में जहाँ राम मर्यादाओं की अनगिनत डोर थाम बंध जाने का पर्याय हैं, कृष्ण बंधन तोड़ने की अप्रतिम शांति हैं। कृष्ण आये ही थे सबके बंधन तोड़ने। बंधन छद्म स्वार्थ का, संसार के मोह का, सुखों की अतृप्त तृष्णा का। कृष्ण जहाँ गए, बंधन तोड़ जीने की ध्यातव्य शिक्षा देते रहे। अपने विचारों, क्रियाओं और मानकों के उच्चस्थ प्रतिमानों को उन्होंने उन्मुक्त होकर गढ़ा।

अवतरित होते ही माँ देवकी और पिता वासुदेव जी के बंधन काट दिए। प्रेम के मानकों को देहविहीन बनाने हेतु मोरपंख को अपने शिरोधार्य किये। प्रेम अपनी श्रेष्ठतम अवस्था में मोर-मोरनी को प्राप्त करता है। लोक किंवदंतियों के अनुसार, बारिश में मोर के मुंह से गिरा हुआ पदार्थ खाकर मोरनी गर्भ धारण कर लेती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण चाहे कुछ भी रहे, लोक कथा के अनुसार, यही सत्य है, और भाव के आँगन में विज्ञान कहाँ ठहरता है? आध्यात्म अपने आप में सम्पूर्ण विज्ञान है और प्रेम की इसी परंपरा को आदर्श बनाने हेतु कृष्ण मोरपंख धारण किये हुए हैं।

कृष्ण का अवतार कारावास में इसी ध्येय से हुआ होगा। संसार को दासता के बंधनों से मुक्त करने को मामा कंस को गोलोकधाम पहुंचा दिया। उस प्रयास में कितने ही योद्धाओं को उस बांसुरी वाले ग्वाले ने धूल में मिला धूल कर दिया, वो भी अकेले। न कोई सेना, न कोई राजसी सहायता। ये कृष्ण होने की सामर्थ्य का संदेश था। कल का नटखट कान्हा, आज महावीर कंसजीत हो चुका था।

राधा को अपने गोकुलवासी साधारण कान्हा के साथ से आनंदित किया तो रुक्मणी को अपने महाराज द्वारिकाधीश रूप से। रुक्मणी को ग्वाला कान्हा की हंसी ठिठोली और माखन को मचलते रूप के दर्शन सदा दुर्लभ ही रहे तो राधा को ब्रह्माण्डनायक, महाराज द्वारिकाधीश से दूर रखा।

दैत्य नरकासुर की कैद से सोलह हजार बलत्कृत एवं परित्यक्त महिलाओं को सम्मान सहित अपनी रानी बनने का गौरव मेरे कान्हा के सिवा और कौन दे सकता था? उस नारकीय जीवन से इस सम्मान से सुसज्जित होने की अनंत आनंदकारी यात्रा का नाम ही है कृष्ण। ऐसा महानारिवादी विश्व में कोई और कहाँ हो सका? आत्मग्लानि के बंधन काटता है वो है कृष्ण।

जनमानस को प्रकृति से प्रेम करना भी तो कान्हा ने ही सिखाया। इंद्रदेव को रुष्ट कर, गोवर्धन पर्वत को जो पूजित करा दे वो कृष्ण, जिसने पर्यावरण सुरक्षा की महत्ता को भी दृष्टिगोचर किया होगा।

दुर्योधन की मेवाओं के अनुपम स्वाद को छोड़ विदुरानी के हाथ केले के छिलके खाने वाला कान्हा अपने संबंधियों के विरुद्ध धर्मयुद्ध को अपने मित्र अर्जुन को शिक्षोपदेश गीता जैसा महाकाव्य रच देता है। साधारण वार्तालाप का ऐसा काव्यात्मक वर्णन कि आने वाले हजारों वर्षों तक गीता मानव को मार्गदर्शित करती रहे। विदुराणी को कान्हा के आने का संदेह था लेकिन मन के कोने में एक आस भी थी कि कान्हा हस्तिनापुर आया है तो किंचित मिलने ही आ जाये। कान्हा अब राजनयिक के रूप में हैं, उनसे मिलने अनगिनत लोगों की भीड़ आई होगी, वो मुझसे मिलने क्यूँ आएगा।

इन्हीं वैचारिक उधेडबुनों में विदुराणी को मौसी की आवाज लगाता कान्हा पुकारता है। अपने श्रवण पर संदेह कर जाती हैं विदुराणी। भला जिसके दर्शनों को सारा हस्तिनापुर आ गया हो, वो मेरे लिए समय कहाँ निकाल सकेगा? अरे !! विदुराणी आश्चर्य एवं प्रसन्नता का कोई ओर छोर न था, मौसी कुछ खिला दे, सुबह से भूख लग रही है।

ये है मेरा कान्हा! इतना प्रेम, इतना विश्वास, इतनी श्रद्धा कि सम्पूर्ण संसार के छप्पन भोग को त्याग वो साधारण सा साग विदुर जी के घर खाता है।

कान्हा के लिए कौरवों से राजपाट ले पांडवों को सौंप देना कौन सा बड़ा कार्य था? वो चाहते तो क्षणभर में उस कुल का नाश कर देते जिसमें उनकी सखी, भक्त द्रौपदी का अपमान हुआ? लेकिन कान्हा को जनमानस को संदेश देना था। संदेश नारी के सम्मान की महत्ता का, संदेश नारी को भोग्य पदार्थ समझ लेने की धृष्टता का। पांडवों को द्रौपदी को दांव पर लगाने का दंड मिलना ही था, इसीलिए अर्जुन से धर्मराज तक को उस कसौटी पर कसा गया। धर्मयुद्ध करना पड़ा, अपनों के विरुद्ध, उस कुकृत्य के प्रायश्चित का ये कैसा उपाय था कान्हा? पूछा होगा अर्जुन ने भी। कान्हा ने हंस कर कहा,

“नारी के अपमान का हश्र यही होता है पार्थ! संपूर्ण कुल का विनाश ! यही सनातन की विशिष्टता है, नारी हमारे जीवन के केंद्र में है, सम्मान की सर्वोच्च उपमा, नारी होना है। वो मातृशक्ति है, प्रकृति है, जगतकल्याण की भावना वही है। नारी, इसीलिए जहाँ उसका सम्मान होगा, वहां देवताओं के निवास का विधान है पार्थ!”

कान्हा – विश्व का सर्वश्रेष्ठ नीतिनिर्धारक, मित्र, सारथी, महामानव, जो मित्रता करे तो ऊंच नीच के भाव त्याग दे। बड़े-छोटे के बंधन वो सुदामा से मित्रता कर तोड़ता है तो उसके उच्चतम आदर्श की प्रतिष्ठापना उन्हें अपने राजमहल में सम्मान देकर, उनके पैरों को अपने आंसुओं से धोकर करते हैं। उनके तीन मुट्ठी चावल के बदले उन्हें अनुपम प्रासाद, मणि माणिक्य, स्वर्णादि मुद्रा भंडार की भेंट देता है। सृजन और विनाश को अपने दोनों भुजाओं में लेकर चलने वाला कान्हा जब सृजित करे तो द्वारिका सी महानगरी स्थापित करे, विनाश पर आये तो अपने ही कुल का संहार कर दे।

कान्हा जी के जन्माष्टमी महापर्व की अशेष शुभ मङ्गलकामनाएं !!

वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम!!

Leave a Reply