समय था ईसवी 1897 और जगह थी पुणे। महामारी ने पुणे को अपने चंगुल में ले रखा था। प्रशासन से जनता को आशा थी सहयोग की, सहायता की, किन्तु प्रशासनिक अधिकारी जनता को पीड़ित और अपमानित ही करते रहे। उनके पूजास्थल में जूते पहन कर घुस जाना, प्रताड़ित करना उन्हें अच्छा लगता था। इन अधिकारियों में प्रमुख थे – जिलाधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैंड तथा सहायक लेफ्टिनेंट एगर्टन आयर्स्ट।
हरिभाऊ चापेकर पुणे के सम्मानित सज्जन थे। उनके तीन पुत्र थे दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर और वासुदेव हरि चापेकर। ये तीनों भाई तिलक को गुरु मानते थे और उसी प्रकार सम्मान देते थे। अत्याचार और अन्याय विषय के संदर्भ में लोकमान्य तिलक ने शिवाजी महाराज का उदाहरण देते हुए चापेकर बंधुओं से एक दिन प्रश्न किया कि शिवाजी महाराज ने अत्याचार का विरोध अपने समय में किया था लेकिन अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो? इस प्रश्न के बाद ही चापेकर बंधुओं ने विचार कर लिया कि पुणे की अस्मिता की रक्षा करने के लिए इन अंग्रेज अधिकारियों को दंडित करना होगा।
जिस घडी की प्रतीक्षा थी, वो अवसर लेकर आई। दिनांक 22 जून 1897 को पुणे के ‘गवर्नमेंट हाउस’ में महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की हीरक जयंती मनाई जा रही थी। इसमें उक्त दोनों अंग्रेज अधिकारी भी आए हुए थे। दामोदर हरि चापेकर अपने भाई बालकृष्ण हरि चापेकर अपने एक मित्र महादेव रानाडे वहां पहुंच गए। अब प्रतीक्षा थी, सभास्थल से इन दोनों अधिकारियों के बाहर निकलने की। रात सवा 12 बजे के लगभग ये दोनों सभास्थल से बाहर निकले, और अपनी अपनी बग्गियों में सवार हो गए। अपनी योजनानुरूप, दामोदर हरि चापेकर अंग्रेज अधिकारी रैंड की बग्गी के पीछे चढ़ गए और समय व्यर्थ किये बिना उस अधिकारी को गोली मार दी। उधर बालकृष्ण हरि चापेकर ने आयर्स्ट पर गोली चला दी। गोली लगने से आयर्स्ट मौके पर ही मारा गया लेकिन रैंड अस्पताल में तीन दिन बाद मृत्यु को प्राप्त हुआ।
पुणे की उत्पीड़ित जनता के कष्टों का अंत करने वाले चापेकर बंधुओं की पुणे की जनता ने जय जयकार की। चापेकर बंधु फरार हो चुके थे। पुलिस की सामर्थ्य अनुसार खोजबीन के बाद भी उन्हें पकड़ा नहीं जा सका। अंततः इंटेलिजेंस सुपरिटेंडेंट ब्रुइन ने घोषणा की कि इन फरार लोगों को पकड़ने में मदद करने वाले को बीस हजार का ईनाम दिया जायेगा।
इस ईनाम के लोभ में दो भाइयों, जिन्हें गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंद्र द्रविड़ कहा जाता था, ने चापेकर बंधुओं का सुराग अंग्रेज अधिकारी ब्रुइन को दे दिया। दामोदर हरि चापेकर पकड़ में आ गए, किन्तु बालकृष्ण हरि चापेकर का पता न लग सका। न्यायालय में मुकदमा चलाया गया, सजा सुनाई गई – फांसी। दामोदर हरि चापेकर ने सहर्ष सजा स्वीकार की। लोकमान्य तिलक उनसे मिलने आये और गीता की एक प्रति भेंट की। अप्रैल 1898 को वो हंसते हुए फांसी के फंदे पर चढ़ गए। फांसी चढ़ते हुए भी उनके हाथ में गीता की प्रति थी।
बालकृष्ण हरि चापेकर के कहीं भी पकड़ में न आने पर पुलिस उनके घरवालों को परेशान करने लगी। इन अत्याचारों के कारण बालकृष्ण जी स्वयं पुलिस थाने पहुंच गए। तीसरे भाई वासुदेव चापेकर ने अपने साथी महादेव गोविंद रानाडे को साथ लेकर द्रविड़ भाइयों को 8 फरवरी 1899 को द्रविड़ भाइयों को गोली मार दी। अंततः वासुदेव चापेकर को 8 मई और बालकृष्ण चापेकर को 12 मई 1899 को यरवडा कारागार में फांसी दे दी गई।
महान क्रांतिवीर महादेव गोविंद रानाडे को भी उसी यरवडा कारागार में 10 मई को फांसी पर लटका दिया गया जहां चापेकर बंधुओं का जीवन अंत हुआ था। इस महान क्रांतिपथ पर पथिक होने की प्रेरणा इन चारों युवकों को लोकमान्य तिलक द्वारा प्रवर्तित ‘शिवाजी महोत्सव’ तथा ‘गणपति महोत्सव’ से ही मिली थी। इन महोत्सवों का उद्देश्य ही था महाराष्ट्र के युवाओं को धर्म तथा राष्ट्र के लिए लड़ने हेतु प्रेरित करना। ये चारों युवक फांसी पर झूल तो गए लेकिन अंग्रेजी हुकूमत को ये संदेश दे गए कि भारत, भारतीयों का है। यहाँ शासन का अधिकार भारतीयों का ही है। यदि किसी प्रकार कोई विदेशी सत्ता भारत पर अधिकार कर अन्यायपूर्ण एवं अराजक शाशन करना चाहते हैं, तो उन्हें भारतीय युवाओं द्वारा प्रायोजित हिंसक विरोध का सामना करने हेतु भी तैयार रहना चाहिए।
अपने देश, समाज, परिवार एवं धर्म को अत्याचारों से बचाते चापेकर बंधु हों या महादेव गोविंद रानाडे, इस त्याग और समर्पण की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, गलत को प्रतिकार करना और खुद को मातृभूमि के लिए समर्पित करने के इस प्रण का ही नाम है क्रांति।
वात्सल्य परिवार की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि।