बुद्ध के लिए जैसे नागार्जुन थे, गांधीजी के लिए धर्मपाल थे, वैसे ही वात्सल्यग्राम एवं परमशक्तिपीठ के लिए आदरणीय संजय भैया जी। बुद्ध के अनित्य-अनात्म को नागार्जुन ने सैद्धांतिक रूप दिया। बुद्ध के निर्वाण को शून्यवाद और निःस्वभाववाद की संज्ञा दी। गाँधी-चिंतन की मूलभूत सरणियों को धर्मपाल ने सूत्रबद्ध किया। तर्कणा की एक ठोस भूमि गांधीवाद के मूल में बनाई है।
संजय भैया जी का वात्सल्यग्राम एवं परमशक्तिपीठ के संवर्धन, उचित सम्प्रेषण एवं दीदी माँ जी के आशीष के साथ दिग्दर्शन उसी के सापेक्ष कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। अकादमिक अध्ययन की धाराएँ सिद्धांत से संबंध रखती हैं। संविद गुरुकुलम विद्यालय के गुण और आकार का विस्तारण एवं उसकी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन का सुरम्य तारतम्य हैं संजय भैया जी।
देश की कठिनतम प्रतियोगी परीक्षा सीए पास कर अर्थ के नवीन सिद्धांतों की रचना उनके लिए दुरूह न होती, किन्तु दीदी माँ जी के आशीर्वाद के साथ, उनके सहयोगी, श्री भैया जी आज वात्सल्यग्राम के अनेकों सेवाप्रकल्पों के आत्मबल हैं। संविद गुरुकुलम विद्यालय में बालिकाओं के भविष्य को सँवारने के महायज्ञ को उनसे बेहतर कौन समझ सकता है? भारतीय संस्कारों के मूल के साथ आधुनिक शिक्षा के सम्मिलित स्वरुप की पराकाष्ठा है संविद गुरुकुलम विद्यालय, जहाँ दीदी माँ जी के आशीष स्वरुप संस्कारम की कक्षाओं के साथ 3 डी प्रिंटिंग एवं रोबोटिक्स का भी पाठन किया जाता है।
धौरवर्ण धवल वस्त्र, पैरों में जड़ाऊँ, तेजपूर्ण आभामंडल – दीदी माँ जी के सहयोगियों में सबसे सार्थक, सक्रिय एवं सार्वजनिक जीवन उन्होंने जिया है। इस प्रेरणामय जीवन से गोकुलम आवास में रहने वाले अनेकों बच्चों को लक्ष्य प्राप्ति की शक्ति मिलती है। वैसे भी यदि देखा जाये तो मनुष्य अंधकार में जी सकता है, अन्याय में जी सकता है, किन्तु आशा के बिना नहीं जी सकता। आदर्श का एक विग्रह उसे अपने सम्मुख चाहिए – मानुषी विग्रह। जिसकी तरफ नजर बढाकर देखा जा सके। जो प्रेरित करे। यह विश्वास दिला सके कि जीवन लक्ष्य प्राप्ति का साधन है। कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं। मानवसेवा आत्मसंतुष्टि के लिए जरुरी है। वात्सल्यग्राम के लिए भैया जी वैसी ही आशा का मूर्तन है।
भैया जी भारतीय मूल्यों एवं चेतना का अनुगायन हैं। सबकुछ प्राप्य होने से त्याज्य होने की यात्रा हैं। उसी यात्रा का सातत्य हैं – सिद्धांत से व्यवहार तक। ज्ञान और कर्म का द्वैत हैं भैया जी। उन्होंने वात्सल्यधाम की सेवा के लिए स्वयं को लोकार्पित किया है। प्रेय को जो त्याग दे, वह तपस्वी है। किन्तु श्रेय को भी जो त्याग दे, साधु तो वही कहलाएगा। भैयाजी भी श्रेय के बिना संलग्न हैं – सतत, अपने संकल्प की सिद्धि के लिए, जो वात्सल्यग्राम एवं परमशक्तिपीठ के रूप में, दीदी माँ जी के आशीर्वाद के साथ, समाजसेवा का संकल्प।
जन्मदिन के अवसर पर निष्ठा दिवस की अनंत मंगलकामनाएं।