भारतीय दर्शन, अध्यात्म एवं सामुदायिक परिवेश का केंद्रबिंदु पर्यावरण संरक्षण हैं। सुबह उठकर प्रातः स्मरण करने में हम माँ पृथ्वी से उसके ऊपर पैर रखने से पहले क्षमा मांगते हैं :-
समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमंड्ले ।
विष्णुपत्नि! नमस्तुभ्यं पाद्स्पर्श्म क्षमस्वे ॥
पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन, भारतीय जनमानस के अंतःकरण में प्रतिस्थापित है। भगवान राम ने भी त्रेता में ‘वृक्षों में जीवन’ की अवधारणा को प्रतिस्थापित करते हुए माँ सीता का पता वृक्षों, लता पत्रादि से पूछा था। इसका कारण उनके मानसिक विषाद नहीं, मानव जाति को पर्यावरणीय व्यवस्था को समझने, उसके अनुरूप कार्य करने की मनःस्थिति को बलिभूत करना था।
योगराज श्रीकृष्ण ने भी परमधाम गमन से पूर्व, पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान किया था। हमारी संस्कृति और संकल्पनाओं के केंद्र में पवित्र पर्यावरण की परिकल्पना है। सृष्टि में पदार्थों में संतुलन बनाए रखने के लिए यजुर्वेद में एक श्लोक वॢणत है-
ओम द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्व शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।।
ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।
पर्यावरण से संबंध, भारतीय दर्शन या उससे भी अधिक, जीवनशैली की आत्मा है। ठाकुर जी के भोग में तुलसी का होना नितांत आवश्यक है तो ग्रहों की शांति के लिए पीपल जैसे वृक्षों को पानी देना भी हमारे शास्त्रों की वाणी। भोलेनाथ के पूजन में बेलपत्र की महत्ता सभी को पता है। सत्यनारायण की पूजा में केले के पत्तों का उपयोग आम है।
महत्व परम्पराओं के साथ सामंजस्य बिठाना ही नहीं है, जनमानस के अंतस में पर्यावरणीय बोध को जगाना है, वृक्षारोपण के माध्यम से लोगों को संवेदनशील बनाना भी सनातन की एक भारतीय परंपरा है, अनेकों अवसरों एवं उपलक्ष्यों पर, किसी महात्मा के जन्मदिवस पर वृक्षारोपण, हम सबने अपने आसपास देखा है।
सिद्धार्थ को गौतम, एक वट की छाँव ने बनाया। महावीर को ज्ञान प्राप्ति भी एक पेड़ के नीचे ही हुई। अनेकों मुनियों, ऋषियों ने तत्वज्ञान की प्राप्ति, पेड़ों के नीचे की। पेड़ों में जीवन, सनातन में शुरू से वर्णित है। कितनी गहनतम जानकारी और ज्ञान रहा होगा जब हमारे ऋषियों ने प्रत्येक वृक्ष का गहराई से विश्लेषण करके यह जाना की पीपल और वट वृक्ष सभी वृक्षों में कुछ खास और अलग है। इनके धरती पर होने से ही धरती के पर्यावरण की रक्षा होती है। यही सब जानकर ही उन्होंने उक्त वृक्षों के संवरक्षण और इससे मनुष्य के द्वारा लाभ प्राप्ति के हेतु कुछ विधान बनाए गए उन्ही में से दो है पूजा और परिक्रमा।
हिंदू धर्म में जब भी कोई मांगलिक कार्य होते हैं तो घर या पूजा स्थल के द्वार व दीवारों पर आम के पत्तों की लड़ लगाकर मांगलिक उत्सव के माहौल को धार्मिक और वातावरण को शुद्ध किया जाता है। अक्सर धार्मिक पांडाल और मंडपों में सजावट के लिए आम के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है।
इसी सांस्कृतिक विरासत की अनेकों रूपों में विश्लेषणात्मक व्याख्या कर उचितार्थ भाव अपने नौनिहालों में बहाते विद्यालय, संविद गुरुकुलम में भी आज माँ प्रकृति की विशेष पूजा, वृक्षारोपण के माध्यम से की गई। इस अवसर पर परमपूज्य दीदी माँ ऋतंभरा जी उपस्थित रहीं, जिनके द्वारा उपस्थित छात्राओं के कोमल मन में पर्यावरण के प्रति लगाव की लौ प्रज्वलित की गई।
पर्यावरण क्षरण रोकने हेतु आवश्यक है कि हम अपने नौनिहालों को,बच्चों को वृक्षारोपण लिए प्रेरित करें, उनके जन्मदिवस पर एक पौधा रोपित कराएं। जैसे जैसे पौधा बढ़ता जायेगा, बच्चे के अंदर मानवीय गुणों का प्रादुर्भाव होगा। अस्तु, कहीं दूर होने के अवसर पर बालमन में उद्विग्नता का भाव होगा, यही प्रेम का अंकुर उसके मन में असंख्य जीवों, पशुओं, मानवों के प्रति अन्याय से उसे असहज ही नहीं करेगा, अपितु, उसके द्वारा उन क्रियाओं का संपादन भी होगा, जिनसे इन जीवों, पशुओं, वनचरों, मानवों की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा। मानव का प्रकृति के साथ तारतम्य बैठेगा। वैचारिक रूपेण समाज की अनेकों अवधारणाओं को पर्यावरणीय संरक्षा मिलेगी।
सामाजिक विकास में वृक्षों का सम्मान बढ़ेगा, जिसके वो अधिकारी हैं, कटान से मृदा अपरदन जैसे अनेकों विषयों पर सामाजिक नैतिक बोध होगा, जिससे किसी महामारी के समय अथवा जैविक युद्ध के समय हम डट सकें, लड़ सकें और जीत सकें। प्राणवायु की कमी से प्राणों की क्षति न हो। आइये प्रण लें – वृक्षारोपण का, उसके नैतिक मूल्यों का बच्चों के मन में भाव भरें – संविद गुरुकुलम के साथ, जिसमें साथ हो दीदी माँ का आशीर्वाद।