दीपावली : भारत की सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक
मानव समाज के ज्ञात-अज्ञात इतिहास में अनेकों सभ्यताओं-संस्कृतियों का प्रादुर्भाव हुआ, कालांतर में वो काल के गाल में भी समा गईं लेकिन जो सभ्य एवं संभ्रांत समाज की उत्तम परिभाषा ‘रामराज्य’ को मिली, उसका दूसरा उदाहरण कहीं नहीं।
राम, भारत देश की आत्मा हैं। उनकी राजव्यवस्था में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप हैं, लेकिन लोग उनके दुष्प्रभाव से बचे रहते हैं। सभी मनुष्य एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और मर्यादापूर्वक अपने जीवन का निर्वहन करते हैं। किसी को कोई पीड़ा नहीं होती, सभी के शरीर सुंदर , निरोगी और सुदृढ़ होते हैं। कोई दीन, हीन और दरिद्र नहीं होता। कोई बुद्धिहीन और शुभ लक्षणों से हीन भी नहीं होता।
सभी अहंकार जैसे दुर्गुण से हीन हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। सभी पुरुष और स्त्री चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले और पंडित हैं, ज्ञानी हैं, कृतज्ञ हैं। सभी दूसरे के किये हुए का उपकार मानने वाले हैं, कपट और धूर्तता किसी में नहीं है।
ऐसी अद्भुत और अद्वितीय राजव्यवस्था हर समाज और राष्ट्र की अपेक्षा होती है। राम जैसा पुत्र, राम जैसा मित्र, राम जैसा भाई, राम जैसा पति, राम जैसा पिता, राम जैसा राजा यहाँ तक कि राम जैसा मर्यादित शत्रु भी यहाँ किसे अपेक्षित नहीं? ऐसे विलक्षण मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम जब अयोध्या की सीमा में पुष्पक विमान के माध्यम से प्रविष्ट होने वाले थे, उससे पूर्व ही महाराज भरत, तीनों राजमाता, शत्रुघ्न, गुरुजन, मंत्रीगण, उनके मित्रादि उनके स्वागत को आतुर खड़े थे। विमान उतरा, प्रभु श्रीराम अपनी भार्या जगतजननी माता सीता और अनुज सौमित्र लक्ष्मण के साथ उतरे तो उनकी ओर सभी प्रतीक्षारत जन भागे, लेकिन श्रीराम अपने नेत्रों में जल लेकर खड़े हुए भाई भरत को देखते रह गए।
श्रीराम, भाई भरत को इतनी तल्लीनता के साथ देख रहे थे कि उनकी ओर बढ़ते सभी लोग सकुचाए अपने स्थान पर ही खड़े रह गए। महाराज भरत अपने प्रभु को देख भावविह्वल हो गए। वैसे भी भरत जी प्रेम का प्रतिरूप ही तो कहे जाते हैं। जहाँ प्रेम हो वहीं निडरता भी होती है इसीलिए भैया भरत के साथ शत्रुघ्न जी सदैव उपस्थित रहते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भी जहाँ ज्ञान रूपी सागर हैं इसीलिए वैराग्य रूपी सौमित्र लक्ष्मण उनके साथ रहते हैं।
भगवान राम, सभी को छोड़कर भाई भरत की ओर आगे बढ़ते हैं तो भरत जी की तंद्रा टूटती है और वो भी गौधूलि में अपनी गौमाता की ओर दौड़ते बछड़े के समान अपने ईष्ट की ओर दौड़ लगा देते हैं। भगवान राम उन्हें अपनी ओर आता देख बाहें खोल देते हैं लेकिन भरत जी उनके चरणों में पड़ जाते हैं।
अहा !! कैसा मनोरम दृश्य, कितने बड़भागी होते हैं वो जिनके लिए स्वयं प्रभु श्रीराम अपनी भुजाएं खोल स्वागत करते हैं और कितने सौभाग्यशाली वो लोग जिन्हें उनके चरणों में आश्रय मिलता है। कितने ही प्रयासों के बाद, प्रभु ने भरत जी को उठा अपने हृदय से लगा लिया। भरतजी की हिचकियाँ बंद ही नहीं हो रही थीं तो भरत जैसे प्रेमी भक्त को पाकर भगवान के आंसू भी नहीं रुक रहे थे। जब दोनों प्रकृतिस्थ हुए तो राम को अपनी भूल का आभास हुआ और वो दौड़ कर माताओं के चरणों में पड़े। अपने गुरुजनों के साथ मंत्रियों के चरणस्पर्श कर राम अपने बालसखा वशिष्ठपुत्र सुयज्ञ के चरणस्पर्श करने बढे लेकिन सुयज्ञ ने उन्हें इसका अवसर ही नहीं दिया और उनके ह्रदय से लग बिलख कर रोने लगे।
अनेकों वर्षों बाद, आज सभी के मुख पर हँसी थी और नेत्रों से जल बह रहा था। मंत्री सुमंत इतने में रथ ले आये थे। सूर्य के समान दैदीप्यमान रथ पर श्रीराम आरूढ़ हुए। सारथी का स्थान भरत जी ने लिया। शत्रुघ्न ने छत्र पकड़ लिया। चंवर डुलाने के लिए एक ओर सौमित्र लक्ष्मण खड़े हुए तो दूसरी ओर चंवर डुलाने के लिए राक्षसराज और वानरराज लपकते हुए आगे बढे किन्तु यहाँ भाग्य राक्षसराज का प्रबल रहा। अतः रथ के आगे दंड पकड़कर महाराज सुग्रीव चलने लगे। हनुमान जी ने सुझाव दिया कि आप अंगरक्षक के रूप में गजराज पर चढ़कर आगे आगे चलें। सुग्रीव गजराज पर चढ़कर आगे आगे चले और दंड वज्रांगी ने पकड़ लिया। माता सीता सुग्रीव की पत्नियों सहित दूसरे रथ पर चढ़ीं। उन रथों के पीछे सहस्त्रों गजों और अश्वों पर रीक्ष, वानर राक्षस चले। अपनी पलकों में अपने राम की छवि संजोने अयोध्या प्रतीक्षारत थी।
श्रीराम का रथ अयोध्या में प्रवेश करते ही जनता ने हर्ष उद्घोष किया। मंगलगान से वायुमंडल गुंजायमान हो उठा। मंदिरों और घरों से होती शंखध्वनि हो रही थी। कैलाशपति नृत्य करने लगे। देवताओं ने पुष्पवर्षा की।
श्रीराम ने अपने भाइयों सहित अनेक वर्षों तक राज्य किया। सभी राक्षस और वानर अपने राज्यों को लौट गए परन्तु हनुमान श्रीराम को छोड़ जा न सके। माता सीता भी उन्हें पुत्रवत मानती थी। अयोध्यावासियों के नेत्रों में वह दृश्य सदैव-सदैव के लिए चित्रित हो गया जहाँ महाबाहु श्रीराम जगतजननी सीता के साथ सिंहासन पर बैठे हैं, दाएँ-बाएँ दयालु भरत और सौमित्र लक्ष्मण चँवर डुलाते तथा पीछे छत्र पकड़े शत्रुदमन शत्रुघ्न खड़े हैं, और श्रीचरणों में प्रणाम की मुद्रा में हैं रुद्रावतार वज्रांगी।
दीपावली आई है। अयोध्याजी लाखों दीयों से जगमग हैं। धन्य हुई अयोध्याजी !!