“खुशी की पहली शर्तों में से एक यह है कि मनुष्य और प्रकृति के बीच की कड़ी को नहीं तोड़ा जाना चाहिए।”
प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय
एक निश्चित समय पर, भोर में, वो पाखी बोल पड़ता था। न जाने कौन सी कलघड़ी उसकी आत्मा में थी। उसका कंठ कोमल था, आवाज में व्यग्रता नहीं थी, संध्या को वापस लौटने की उत्कंठा भी नहीं। उसमें किसी शुभारंभ सी एक तन्मय अन्विति थी, मीठा कलरव भी। रोज सुबह के ४ बजे, जब अँधेरे में कुछ भी नहीं दिखता था, पाखी अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता था। अँधेरे में न वो दीखता, न पेड़, लेकिन उसके स्वर का आलोक एकांत में कांपता रहता।
एक अनुशासित नियम, भोर होते ही, जैसे सबको अपने होने के भाव से परिचित कराकर जाने कहाँ चला जाता। दिन में नहीं मिलता था, न जाने दिखता कैसा था, किंतु रोज सुबह उसके नियमित गायन के श्रवण के कारण उसकी स्वरसाधना से परिचय हो ही गया। एकांतिकता का एक विशेष सम्मोहन होता है, एकांत अपनी एकरसता से एक परिचित से उद्वेग का सुख रचता है। तभी वो पाखी बोल देता – मित्र! तुम भले अकेले हो किंतु एकांत एकाकी नहीं, वो दुकेला ही है, उसकी संगति का एक साथी भी है।
अब उस पाखी की आवाज नहीं आती। भोर में आवाज देता पाखी अब नहीं बतियाता। शायद पर्यावरण दिवस की किसी महत्वपूर्ण बैठक में सम्मिलित होने जाते किसी अतिविशिष्ट अतिथि के वाहन के प्रदूषित अवशेषों ने उसके जीवन को हर लिया हो अथवा फेफड़ों में सीसा भर गया हो, जिससे उस जैसे अनेकों खगकुल ने समयपूर्व वानप्रस्थ की दीक्षा ले ली हो।
आज विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस है। संरक्षण एक शब्द मात्र नहीं अपितु एक जिम्मेदारी और उस जिम्मेदारी को समझने की महती आवश्यकता का नाम है। संरक्षण उस परि आवरण का, जो रक्षक है हमारे शरीर का, स्वास्थ्य का, संसाधनों का एवं जीवित रहने की जिजीविषा का। पर्यावरण वैश्विक महत्व के सर्वोच्च सोपान पर आसीन है, इसके संरक्षण का विवेचन अनेकों देश प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर करते हैं।
पर्यावरण क्षरण एक समस्या मात्र नहीं है, एक अस्तित्वगत संकट है जिससे उबरना अत्यंत आवश्यक हो चला है। पर्यावरण संरक्षण विषयों पर प्रांतीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैठकों एवं वार्ताओं क श्रृंखला चल निकली है, पाठ्यक्रमों ने इस विषय का चुनाव पठन पाठन हेतु किया है, इससे इस विषय की सर्वस्वीकार्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। समुद्र के स्तर का निरंतर बढ़ना, वृक्षों का कटान, मृदा अपरदन, बढ़ता कार्बन उत्सर्जन पर्यावरण को निरंतर प्रभावित करता जा रहा है।
भारतवर्ष जैसे देशों में निरंतर प्राकृतिक आपदाएं आती ही रहती हैं। इन आपदाओं में भूस्खलन, बाढ़, सूखा जैसी समस्याएं जनसामान्य को अधिक प्रभावित करती हैं। वर्षाकाल में प्रतिवर्ष होती कोसी एवं ब्रह्मपुत्र नदियों का तटीय क्षेत्रों में बाढ़ के कारण नुकसान दृष्टिगोचर होता ही है। पर्वतीय क्षेत्रों में निरंतर होते भूस्खलन के कारण मार्गों का बंद होना भी नियमित ही लगता है।
आज विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस के अवसर पर हमें ये प्रण लेना होगा कि अपनी संततियों को ऋतुओं के व्यावहारिक ज्ञान के लिए, तापमान के संतुलित परिवर्तन के लिए एवं सुरक्षित पर्वतीय एवं तटीय जीवन के लिए पर्यावरण संरक्षण का महत्व समझें। अधिक से अधिक सौर ऊर्जा के वैकल्पिक माध्यमों का निर्माण एवं वितरण प्रारंभ हो, जीवाश्म संचालित ईधनों पर निर्भरता कम की जाये, कार्बन उत्सर्जन को कम से कम किया जाये, सामाजिक स्तर पर वृक्षारोपण के कार्यक्रमों की संख्या में बढ़ोत्तरी जाये, वृक्षों का कटाव, मृदा अपरदन, धूम्रपान जैसे अवगुणों को कम करते हुए समाप्त किया जा सके।
वो पाखी आज भी भोर में गीत सुनाना चाहता है किन्तु हमारी पर्यावरण क्षरण की हठधर्मिता उसे हमारी संततियों से दूर किया है। आइये, मिलकर पर्यावरण के क्षरण को रोक कर संरक्षण को बढ़ावा दें, ताकि उस मधुरकंठीय पाखी को पुनः सुन सकें।