अयोध्या के महाराजा सगर की दो पत्नियां थीं जिनका नाम था केशिनी और सुमति। जब वर्षों तक महाराज सगर के कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने हिमालय में भृगु ऋषि की सेवा की। भृगु ऋषि ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने को कहा। सगर ने भृगु ऋषि से संतान प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। भृगु ऋषि ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम अनेकों पुत्रों के पिता बनोगे। तुम्हारी एक पत्नी से तुम्हें साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरी पत्नी से तुम्हें एक पुत्र होगा और वही तुम्हारा वंश आगे बढ़ाएगा।
कुछ समय पश्चात रानी केशिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम असमंजस रखा गया। सुमति के गर्भ से एक मांसपिंड उत्पन्न हुआ जो साठ हजार टुकड़ों में विभक्त हो गया। बाद में महीनों तक घी से भरे गर्म घड़ों में रखने पर इनसे साठ हजार बच्चों का जन्म हुआ। सगर के सभी पुत्र वीर एवं पराक्रमी हुए हुए किन्तु असमंजस निष्ठुर एवं दुष्ट था। राह चलते लोगों को प्रताड़ित करना उसे अच्छा लगता था। लोगों को सड़क से उठाकर सरयू में फेंक देता था।
महाराजा सगर ने भरसक प्रयास किए कि उनका पुत्र सद्मार्ग पर आगे बढे। धर्म और पुरुषार्थ के कर्मों में संलग्न रहे किन्तु कुछ भी परिवर्तन न होने पर उन्होंने असमंजस को राज्य से निष्कासित कर दिया। असमंजस के पुत्र का नाम था अंशुमान जो गुणों में अपने पिता से सर्वथा विपरीत था। वह धर्मोन्मुख, वेदों का ज्ञाता एवं दयालु था। अनेकों विद्याओं में निपुण अंशुमान कर्तव्यनिष्ठ था।
एक बार महाराजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ करने का प्रण किया। अनेकों महान ऋषिगण उपस्थित हुए किन्तु यज्ञ प्रारंभ होने से पूर्व ही इंद्र ने घोडा चुराकर महर्षि कपिल के तपोवन में छोड़ दिया। महाराजा सगर ने यज्ञ के घोड़े को ढूंढने में अपने सभी पुत्रों को लगा दिया, क्यूंकि उस घोड़े के बिना यज्ञ संभव नहीं था। अनेकों प्रयासों के बाद भी घोडा नहीं मिला तो महाराजा सगर ने अपने पुत्रों को फटकार लगाई क्यूंकि काफी समय व्यतीत हो चुका था।
पिता की फटकार से व्याकुल हुए पुत्रों ने सही गलत का भेद छोड़ पुनः अश्व की खोज प्रारंभ की। यहाँ वहां पृथ्वी की खुदाई करने लगे, लोगों पर अत्याचार बढ़ा दिए गए, पृथ्वी और वातावरण को नुकसान पहुंचाने लगे। पृथ्वी को कई जगह खोदने के बाद उन्हें वो अश्व महर्षि कपिल के आश्रम के पास दिखा। कपिल मुनि समीप ही तपस्या में लीन थे। घोड़े के मिलने से प्रसन्न उन राजकुमारों ने जब समीप में महर्षि को देखा तो उन्हें लगा कि ये घोडा महर्षि कपिल ने ही चुराया है, जिस कारण वो कपिल मुनि को मारने दौड़े। कपिल मुनि ने आंखें खोलकर उन्हें भस्म कर दिया।
जब बहुत समय बीतने पर भी सगर के पुत्र नहीं लौटे तो उन्होंने अपने पौत्र अंशुमान को उनकी खोज में भेजा। अंशुमान अपने चाचाओं को ढूंढ़ते हुए कपिल मुनि के आश्रम के समीप पहुंचे तो वहां उन्हें अपने चाचाओं की भस्म का ढेर देखा। अपने चाचाओं की अंतिम क्रिया के लिए जलश्रोत ढूंढ़ने लगे। गरुड़ देव ने उन्हें बताया कि किस प्रकार उनके चाचाओं को कपिल मुनि ने उनका अपमान करने पर भस्म कर दिया है। किसी भी सामान्य जल से तर्पण करने पर इन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। अंशुमान ने गरुड़ देव से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने कहा कि स्वर्ग से हिमालय की प्रथम पुत्री गंगा के पृथ्वी पर अवतरण से ही सगर पुत्रों को मुक्ति मिलेगी।
अंशुमान यज्ञ के अश्व के साथ अयोध्या वापस आ गए और उन्होंने महाराजा सगर को सारी बात विस्तारपूर्वक बताई। सगर अपना राजपाठ अंशुमान को सौंपकर हिमालय पर तपस्या करने चले गए, जिससे कि पृथ्वी पर गंगा को लाकर अपने पुत्रों का तर्पण कर सकें। महाराजा सगर गंगा को पृथ्वी पर लाने में असफल रहे।अंशुमान भी अपना राज अपने पुत्र दिलीप को सौंपकर हिमालय तपस्या करने चले गए ताकि गंगा को पृथ्वी पर ला सकें। वर्षों तक तपस्या करने के बाद अंशुमान भी स्वर्ग सिधार गए परंतु गंगा को धरती पर न ला सके।
दिलीप भी अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तपस्या करने हिमालय गए जहाँ अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देने के बाद भी वो गंगा को पृथ्वी पर न ला सके।
दिलीप के पुत्र भगीरथ, दिलीप के बाद राजा बने। भगीरथ एक धर्मपरायण एवं कर्तव्यनिष्ठ राजा थे। वर्षों तक संतान न होने पर वो अपने राज्य की जिम्मेदारी अपने मंत्रियों को सौंप हिमालय तपस्या करने निकल गए। बिना कुछ खाये पिये उन्होंने कठोर तप किया जिस कारण प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें वर मांगने को कहा। भगीरथ ने ब्रह्मदेव से अपने मन का प्रयोजन कहा जिसमें अपने पूर्वजों के तर्पण हेतु पृथ्वी पर गंगावतरण एवं अपने लिए संतान की इच्छा जताई। ब्रह्मदेव ने तथास्तु के साथ गंगा के तीव्र वेग की समस्या बताते हुए समाधान में महादेव शिवशंकर नाम का उपाय सुझाया। भगीरथ ने महादेव की तपस्या कर उन्हें भी प्रसन्न कर लिया। महादेव ने गंगा जटाओं में धारण करने पर सहर्ष सहमति जता दी।

अंततः देवनदी गंगा ने धरती पर अवतरित होने का निर्णय लिया। महादेव ने गंगा को अपनी जटाओं में समा लिया और जब उन्हें अपनी जटाओं से छोड़ा तो धाराएं निकलीं। तीन धाराएं पूर्व की ओर एवं तीन धाराएं पश्चिम की ओर बहने लगीं तथा एक धारा भगीरथ के पीछे चलने लगी। महाराज भगीरथ अपने रथ पर आगे आगे तथा गंगा की धारा उनके पीछे पीछे। रास्ते में जो कुछ आता, वो नदी में मिल जाता।
गंगा नदी के रास्ते में महर्षि जह्नु का भी आश्रम था जो गंगा के तीव्र प्रवाह में बह गया। इस पर महर्षि जह्नु को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने अपने योगबल से गंगा का सारा पानी पी लिया। इसपर महाराज भगीरथ एवं अन्य देवताओं ने महर्षि जह्नु से प्रार्थना की, कि जनकल्याण हेतु गंगा को मुक्त करें। देवताओं के इस प्रकार विनती करने पर महर्षि जह्नु ने गंगा को अपने कानों के द्वार से मुक्त कर दिया। इस कारण गंगा नदी को जाह्नवी भी कहा जाता है।
उसके बाद महाराज भगीरथ का पीछा करते हुए गंगा समुद्र की ओर बढ़ चली और अंततः सगर के पुत्रों की भस्म को अपने जल में मिला कर उन्हें सभी पापों से मुक्त कर दिया।
पापनाशिनी माँ गंगा के इस अवतरण दिवस पर वात्सल्य परिवार की ओर से सभी महर्षियों के श्री चरणों में शत शत नमन।