कारगिल विजय – गर्व है

By July 26, 2021August 10th, 2023Blog

भारतवर्ष – एक देश से ज्यादा एक संबल है – मानवता के लिए, धर्म के लिए, प्रगतिशील दृष्टिकोण की सार्वभौमिक संभावनाओं के सतत विकास के लिए, सांप्रदायिक गतिरोध को समाप्त कर सहअस्तित्व की विचारधाराओं के प्रखर सम्प्रेषण की मान्यताओं को आगे बढ़ने वाली सोच है भारत।। ये देश विविधताओं का, वांगमय का, संस्कृति का, कला का, और सबसे बढ़कर वीरता का वैश्विक स्तर पर एक प्रतीक है। वैश्विक शांति का प्रश्न हो अथवा विज्ञान से आध्यात्म का, प्रथम संदेश सदासर्वदा भारतवर्ष से ही प्रेषित हुआ है जिसने विश्व कल्याण की अवधारणाओं को जीवंत रूप दिया है।

भारतवर्ष की उन्नत प्रतिभाओं द्वारा अर्जित की गई ख्याति जब सुदूर विश्व में फैलने लगी तो कुछ लुटेरों के झुंड इस सोने की चिड़िया को लूटने को प्रेरित हुए। एक धर्मांध आक्रांता ने जब नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया तो उस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को ही जलने में छह मास से अधिक समय लग गया जिसमें 90 लाख अधिक पुस्तकें जला दी गईं। उस स्तर की बौद्धिकता का देश है भारतवर्ष जिसपर कुदृष्टियों की होड़ लग गई। हजार वर्षों तक सतत प्रयास हुए, हमारी सांस्कृतिक गौरवशाली पहचान को मिटाने के, मंदिर तोड़े गए, धर्म आधारित कर व्यवस्था लागु की गई, महिलाओं को वस्तु समझ अपमानित किया गया किन्तु कुछ तो विशेषताओं का परिचायक सनातन समाज है कि हम आज भी विश्व को दैदीप्यमान कर रहे हैं।

ऐसी ही एक कुटिल कुदृष्टि हमारे पड़ोस में वर्ष १९४७ से सतत प्रयासरत है, हमें तोड़ने के लिए, हमारी जमीन छीनने के लिए, हमें अपमानित करने के लिए किन्तु भारतवर्ष सदैव खड़ा है, अपनी हिमालयी अटल पहचान लिए।

अपने एक ऐसे ही धूर्तता पूर्ण प्रयास में कुटिल धर्मांध पडोसी ने वर्ष १९९९ को कारगिल की कुछ चोटियों पर अनैतिक कब्ज़ा कर लिया था। ये वर्ष का वो समय था जब दोनों ओर की सेनाएं अपनी चोटियों से नीचे आ जाती हैं। भारतीय सेना के अपनी वास्तविक चोटियों से नीचे आने पर शत्रु सेना के सैनिक, इन चोटियों पर चढ़ गए। इनकी संख्या कुछ हजार में थी। शत्रु लाभदायक स्थिति में था, हमारी प्रत्येक हलचल को देख रहा था। लड़ाई बिना चोटी पर पहुंचे नहीं जीती जा सकती थी। किसी भी सेना के लिए ये युद्ध जीतना लगभग असंभव था, किन्तु भारतीय समाज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ना और जीतना सदियों से जानता है, यहाँ भी वही परिस्थिति सेनाओं के बाहुबल को ललकार रही थी।

भारतीय सेना ने अपनी चोटियां वापस लेने के जिस प्रयास को मई १९९९ में प्रारम्भ किया, उसके लिए अदम्य साहस, अचूक रणनीति, शारीरिक सामर्थ्य की महती आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, जिस चोटी को परमवीर कप्तान विक्रम बत्रा ने वापस प्राप्त किया था, उसकी वो १७००० फ़ीट की ऊंचाई पर थी। इस स्तर पर जीवित रहना ही संघर्ष है जिसमें कप्तान बत्रा ने सीधी चढ़ाई के बाद बंकर उड़ाए, अपने साथियों की प्राणत्याग रक्षा की, ५ शत्रुओं को निहत्थे रहते मार दिया था। अपनी वीरता के ऐसे ही अदम्य साहस के लिए कप्तान मनोज पांडे, अनुज नायर जैसे ५२७ वीर शहीद हुए थे, किन्तु उनकी शूरवीरता उन्हें अमर कर गई।

ये युद्ध किसी भी सेना के लिए लड़ पाना लगभग असंभव था, जीतना तो बहुत दूर की बात है। वो व्यक्तित्व जो लड़ते हुए शहीद हुए, आम जनमानस में नहीं मिलते जिसमें एक २४ वर्षीय युवा हर बुधवार को रात ८ बजे नियत समय पर चंडीगढ़ फोन करता था, जिसने कहा था, या तो जीतकर आऊंगा या तिरंगे में लिपटकर, लेकिन आऊंगा जरूर। अपने वचन के अनुसार वो वीर, जिसके खौफ में शत्रु ने उसका नाम शेरशाह रख दिया था, वापस आया लेकिन तिरंगे में लिपटकर।

आज कारगिल विजय दिवस है। पाकिस्तानी भेड़ियों की मांद में जाकर उनके दांत खट्टे करने वाले योद्धाओं की वीरता का अभिनंदन करने का, उन्हें सम्मान प्रदर्शित करने का, उनके प्रति अपनी भावनाओं प्रदर्शित करने का दिन। उन कहानियों को कहने का, सुनने का, समझने का दिन, जिस दिन ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ को पुनः चरितार्थ किया गया।

कारगिल दिवस की समस्त देशवासियों को वात्सल्यपूर्ण शुभकामनाएं।

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